एक युग ने आँखें मूंदी थी, एक युग ने आँखें खोली थी ।
समय के बदलते चक्र में, श्रीहरि ने रची पहेली थी ।।
उस निर्माता के निर्माण पे, सारे अयोध्या ने मनाई होली थी ।
धन्य हुई थी माँ धरती, एक रघुवंशी ने जन्म ले ली थी ।।
था इतिहास नया रचने वाला, उस पुरुषोत्तम के नाम की ।
जो दो अक्षर से हुई आरम्भ, ये गाथा है श्री राम की ।।
चारो पुत्रों में अग्रज, तीनो माताओं का अभिमान ।
दशरथ के कुल का सूत्रधार, और सिया के प्राण ।।
दिन बीता, साल बीती, बीत गई हर परीक्षा ।
जब राजशासन की हुई बात, भेज दिया वन माँगने भिक्षा ।।
पित्राज्ञा पर निसंकोच, राम चल पड़े वन की ओर ।
संग सीता और लक्षमण, ने थाम ली प्रभु की डोर ।।
14 वर्ष का वास, वन में काट रहे थे सब ।
पर एक दिन पंहुचा रावण, किया हरन जानकी का तब ।।
अर्धजीवित जटायु ने फिर, सुनाई माता की व्यथा थी ।
दंडकारण्य में फ़ैल रही, उदास पति की अवस्था थी ।।
ली प्रतिज्ञा के जाएंगे लंका, वापस आएगी सीता ।
पैदल चल पड़े दक्षिण की और, दोनों मानव-रूपी देवता ।।
न विजय की थी कामना, न हार का था डर ।
बस लक्ष्य पर केन्द्रित, जा रहे थे डगर डगर ।।
आ पहुचे किष्किन्धा, हुई परम भक्त से मिलन ।
अंजनीनंदन ने अपने आराध्य को, दिखाई आशा की नयी किरण ।।
संग सुग्रीव, जांबवंत, वानर सेना, और हनुमान ।
किया कुच लंका पर, कर सेतु का निर्माण ।।
हुई युद्ध लंका की शुरू, आये मेघनाद, कुम्भकरण ।
शक्ति की पराकाष्ठता हुई तब, जब पहुचे खुद दशानन ।।
एक तरफ थे सनातनी, प्रताप से भी प्रतापी ।
दूसरे तरफ थे अहंकारी, पाप से भी पापी ।।
भीषण युद्ध छिड़ी जब, राम की हुई विजय थी ।
दस कोटि शरीर हो या दस सर, सब भूमि पे गिरी थी ।।
लौटे जब अयोध्या नगरी, मनाई सब ने दीवाली थी ।
राजा राम के राज्य में, रामराज्य वापस आयी थी ।।
धर्म के आगे अधर्म, की मस्तक एक बार फिर झुकी थी ।
वाल्मीकि ने महाकाव्य रामायण, की रचना तब की थी ।।
फिर एक युग आँखे मूंदेगी, फिर एक युग आँखे खोलेगी ।
समय के बदलते हर चक्र में, राम की ही छवि मिलेगी ।।
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